🌿 अध्याय 6 – ध्यान योग: मन के संयम का विज्ञान
(The Yoga of Meditation: Science of Mind Control)
📖 अध्याय परिचय
गीता का छठा अध्याय, ध्यान योग, मन की एकाग्रता और आत्म-साक्षात्कार के practical मार्ग को प्रस्तुत करता है। इसमें 47 श्लोक हैं, जो ध्यान की विधि, योगारूढ़ व्यक्ति के लक्षण और मन के नियंत्रण के गहन रहस्यों को उजागर करते हैं।
💡 ध्यान योग का दार्शनिक आधार
यह अध्याय बताता है कि योग मन का परमात्मा में पूर्णतः लीन होना है। वास्तविक योगी वह है जो सभी परिस्थितियों में समभाव रखता है और इंद्रियों को वश में करके परमात्म-साक्षात्कार करता है।
🌟 प्रमुख श्लोक एवं उनका विस्तृत विवरण
🌺 श्लोक 1-4: संन्यासी और योगी की परिभाषा
श्लोक 1:
"श्री भगवानुवाच –
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।"
भावार्थ:
"श्री भगवान बोले - जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्तव्य कर्म करता है, वही संन्यासी और योगी है, न कि अग्नि और कर्मों का त्यागी।"
श्लोक 2:
"यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।"
भावार्थ:
"हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं, उसे ही तू योग जान, क्योंकि सांकल्पों का त्याग किए बिना कोई योगी नहीं हो सकता।"
श्लोक 3-4:
"आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।"
भावार्थ:
"योग की इच्छा रखने वाले मुनि के लिए कर्म साधन है और योग में स्थित हो जाने पर शम (मन का निग्रह) साधन है। जब मनुष्य न इंद्रियों के विषयों में और न कर्मों में आसक्त होता है, सभी सांकल्पों का त्यागी हो जाता है, तब वह योगारूढ़ कहलाता है।"
🔥 श्लोक 5-18: आत्म-उन्नति के साधन
श्लोक 5:
"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।"
भावार्थ:
"मनुष्य को चाहिए कि अपने आपको अपने द्वारा उठाए और अपने आपको अपने द्वारा न गिराए, क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है।"
श्लोक 6:
"बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।"
भावार्थ:
"जिसने अपने आपको अपने द्वारा जीत लिया है, उसके लिए आत्मा मित्र है और जिसने आत्मा को नहीं जीता, उसके लिए आत्मा शत्रु के समान व्यवहार करती है।"
श्लोक 10:
"योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।"
भावार्थ:
"योगी को चाहिए कि एकांत में स्थित, एकाकी, यतचित्त, निराशी और अपरिग्रही होकर सदैव आत्मा में मन को लगाए।"
श्लोक 17:
"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।"
भावार्थ:
"जिसका आहार-विहार संयत है, जिसकी कर्मों में चेष्टा संयत है, जिसका सोना-जागना संयत है, उसके योग सब दुःखों को नष्ट कर देता है।"
🌼 श्लोक 19-32: ध्यान की विधि और लक्षण
श्लोक 19:
"यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।"
भावार्थ:
"जैसे निर्वात स्थान में दीपक की लौ नहीं डगमगाती, वैसी ही उपमा योग में लगे हुए यतचित्त योगी की बताई गई है।"
श्लोक 23:
"तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।"
भावार्थ:
"दुःख के संयोग के वियोग को योग संज्ञक जाने। उस योग का निश्चयपूर्वक और अनिर्विण्ण चित्त से अभ्यास करना चाहिए।"
श्लोक 26:
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।"
भावार्थ:
"जहाँ-जहाँ चंचल और अस्थिर मन भटकता है, उसे वहाँ-वहाँ से खींचकर आत्मा में ही वश में करे।"
श्लोक 29:
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।"
भावार्थ:
"योगयुक्तात्मा और सर्वत्र समदर्शी योगी सब प्राणियों में आत्मा को और आत्मा में सब प्राणियों को देखता है।"
श्लोक 31:
"सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।"
भावार्थ:
"एकत्व को प्राप्त हुआ योगी सब प्राणियों में स्थित मेरा भजन करता है, वह सर्वथा वर्तमान होकर भी मुझमें ही वर्तता है।"
💫 श्लोक 33-47: योगाभ्यास की कठिनाइयाँ और सफलता
श्लोक 33:
"अर्जुन उवाच –
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।"
भावार्थ:
"अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! इस योग की जो स्थिर स्थिति है, उसे मैं चंचलता के कारण नहीं देख पा रहा हूँ।"
श्लोक 34:
"चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।"
भावार्थ:
"हे कृष्ण! मन बड़ा चंचल, प्रमथन करने वाला, बलवान और दृढ़ है, मैं उसके निग्रह को वायु के निग्रह के समान अत्यंत दुष्कर मानता हूँ।"
श्लोक 35:
"श्री भगवानुवाच –
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।"
भावार्थ:
"श्री भगवान बोले - हे महाबाहो! निस्संदेह चंचल मन दुर्निग्रह है, परन्तु हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य से वह वश में हो जाता है।"
श्लोक 36:
"असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।"
भावार्थ:
"मेरी मति में असंयतात्मा पुरुष के लिए योग दुष्प्राप है, किन्तु वशीभूत आत्मा वाला पुरुष उपायपूर्वक प्राप्त कर सकता है।"
श्लोक 47:
"योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।"
भावार्थ:
"सब योगियों में से जो योगी मेरे परायण, अंतरात्मा से मुझमें स्थित, श्रद्धापूर्वक मेरा भजन करता है, वह मुझे योग से अत्यंत युक्त है।"
🌍 आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता
🧘♂️ व्यक्तिगत विकास के लिए:
Mind Management: मन के नियंत्रण का विज्ञान
Emotional Stability: भावनात्मक संतुलन
Self-Discipline: आत्म-अनुशासन
💼 पेशेवर जीवन के लिए:
Concentration: एकाग्रता का विकास
Stress Relief: ध्यान द्वारा तनाव प्रबंधन
Decision Making: स्पष्ट निर्णय क्षमता
🌱 सामाजिक संदर्भ में:
Harmonious Living: सामंजस्यपूर्ण जीवन
Compassion: करुणा और समदर्शिता
Peaceful Coexistence: शांतिपूर्ण सहअस्तित्व
🛤️ ध्यान योग से प्राप्त जीवन-मंत्र
"मन को वश में करो" – अभ्यास और वैराग्य से
"समदर्शी बनो" – सबमें एक आत्मा का दर्शन
"नियमित अभ्यास करो" – योग सिद्धि का रहस्य
"ईश्वर में समर्पित रहो" – परम सफलता का मार्ग
📚 व्यावहारिक अनुशीलन
दैनिक जीवन में अपनाएँ:
प्रतिदिन ध्यान का अभ्यास
मन की चंचलता पर नियंत्रण
संयमित आहार-विहार
आध्यात्मिक अभ्यास:
ध्यान की नियमित साधना
मन को ईश्वर में लगाना
वैराग्य का विकास
🌈 निष्कर्ष: मन की विजय ही यथार्थ विजय
ध्यान योग हमें सिखाता है कि वास्तविक सफलता बाहरी विजय नहीं, बल्कि आंतरिक मन की विजय है। यह अध्याय practical steps के साथ मन के नियंत्रण और आत्म-साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करता है।
✨ स्मरण रहे:
"मन ही मनुष्य है, मन ही बंधन,
मन ही मुक्ति का है कारण।
वश में हो मन तो सब कुछ पाओ,
अवश मन से सब कुछ खो जाओ।"
🕉️ श्री कृष्णार्पणमस्तु 🕉️
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