Friday, November 7, 2025

🌿 अध्याय 18 – मोक्ष संन्यास योग: मुक्ति और त्याग का परम ज्ञान (The Yoga of Liberation through Renunciation)

 🌿 अध्याय 18 – मोक्ष संन्यास योग: मुक्ति और त्याग का परम ज्ञान

(The Yoga of Liberation through Renunciation)


📖 अध्याय परिचय

गीता का अठारहवाँ और अंतिम अध्याय, मोक्ष संन्यास योग, सम्पूर्ण गीता का सार प्रस्तुत करता है। इसमें 78 श्लोक हैं, जो संन्यास और त्याग के वास्तविक अर्थ, कर्मयोग के सिद्धांत और अंतिम उपदेश को समेटे हुए हैं।


💡 मोक्ष संन्यास योग का दार्शनिक आधार

यह अध्याय बताता है कि वास्तविक संन्यास कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि कर्मफल का त्याग है। सम्पूर्ण गीता का सार "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" में निहित है।


🌟 प्रमुख श्लोक एवं उनका विस्तृत विवरण

🌺 श्लोक 1-12: संन्यास और त्याग का सही अर्थ

श्लोक 1:
"अर्जुन उवाच –
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितum।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।"

भावार्थ:
"अर्जुन बोले - हे महाबाहो! हे हृषीकेश! हे केशिनिषूदन! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को अलग-अलग जानना चाहता हूँ।"

श्लोक 2:
"श्री भगवानुवाच –
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।"

भावार्थ:
"श्री भगवान बोले - काम्य कर्मों के त्याग को कवि लोग संन्यास कहते हैं और सब कर्मों के फल के त्याग को विचक्षण लोग त्याग कहते हैं।"

श्लोक 5:
"यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।"

भावारथ:
"यज्ञ, दान और तप - इन कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए, उन्हें अवश्य करना चाहिए, क्योंकि यज्ञ, दान और तप मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं।"

श्लोक 6:
"एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।।"

भावार्थ:
"हे पार्थ! इन कर्मों को भी संग और फल को त्यागकर करना चाहिए, यह मेरा निश्चित उत्तम मत है।"

श्लोक 7:
"नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।"

भावार्थ:
"नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है, मोह से उसका त्याग तामस कहा गया है।"


🔥 श्लोक 13-18: कर्म के पाँच कारण

श्लोक 13:
"पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।"

भावार्थ:
"हे महाबाहो! सब कर्मों की सिद्धि के लिए सांख्य में कृतांत पर प्रोक्त इन पाँच कारणों को मुझसे जानो।"

श्लोक 14:
"अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।"

भावार्थ:
"अधिष्ठान (शरीर), कर्ता, पृथग्विध करण (इंद्रियाँ), विविध पृथक् चेष्टाएँ और उनमें पाँचवाँ दैव (भाग्य)।"

श्लोक 15:
"शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।"

भावार्थ:
"मनुष्य शरीर, वाणी और मन से जो कर्म प्रारम्भ करता है, चाहे वह न्याय्य हो या विपरीत, उसके ये पाँच हेतु हैं।"

श्लोक 16:
"तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।"

भावार्थ:
"इसमें भी जो अकृतबुद्धित्व से केवल आत्मा को ही कर्ता देखता है, वह दुर्मति नहीं देखता।"

श्लोक 17:
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।"

भावार्थ:
"जिसका अहंकारभाव नहीं है, जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं है, वह इन लोकों को मारकर भी नहीं मारता और न बँधता है।"


🌼 श्लोक 19-44: ज्ञान, कर्म और कर्ता के भेद

श्लोक 20:
"सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।"

भावार्थ:
"जिस ज्ञान से सब भूतों में एक अव्यय भाव को, विभक्तों में अविभक्त को देखता है, उसे सात्त्विक ज्ञान जानो।"

श्लोक 23:
"नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।"

भावार्थ:
"जो कर्म नियत, संगरहित, राग-द्वेष से रहित और फल की इच्छा से रहित किया जाता है, वह सात्त्विक कहा जाता है।"

श्लोक 26:
"मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।"

भावार्थ:
"मुक्तसंग, अनहंवादी, धृति और उत्साह से समन्वित, सिद्धि-असिद्धि में निर्विकार कर्ता सात्त्विक कहा जाता है।"

श्लोк 41:
"ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।"

भावार्थ:
"हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभावप्रभव गुणों से प्रविभक्त हैं।"

श्लोक 42:
"शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।"

भावार्थ:
"शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य - यह ब्रह्मण का स्वभावज कर्म है।"

श्लोक 43:
"शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।"

भावार्थ:
"शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य, युद्ध में अपलायन, दान और ईश्वरभाव - यह क्षत्रिय का स्वभावज कर्म है।"

श्लोक 44:
"कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।"

भावार्थ:
"कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य वैश्य का स्वभावज कर्म है और परिचर्यात्मक कर्म शूद्र का स्वभावज कर्म है।"


💫 श्लोक 45-55: स्वधर्म पालन की महिमा

श्लोक 45:
"स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।"

भावार्थ:
"मनुष्य अपने-अपने कर्म में अभिरत होकर सिद्धि को प्राप्त होता है। स्वकर्म में निरत कैसे सिद्धि को प्राप्त होता है, सुनो।"

श्लोक 46:
"यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।"

भावार्थ:
"जिससे भूतों की प्रवृत्ति हुई है, जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उसको स्वकर्म से अर्चन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है।"

श्लोक 47:
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।"

भावार्थ:
"विगुण स्वधर्म अनुष्ठित परधर्म से श्रेयस्कर है। स्वभाव से नियत कर्म करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता।"

श्लोक 48:
"सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।"

भावार्थ:
"हे कौन्तेय! सहज कर्म दोषयुक्त भी नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि सब आरम्भ दोष से धूम से अग्नि के समान आवृत हैं।"


🌺 श्लोक 56-66: भगवान की शरणागति

श्लोक 56:
"सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।"

भावार्थ:
"सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरा आश्रय लेने वाला मेरे प्रसाद से शाश्वत अव्यय पद को प्राप्त होता है।"

श्लोक 57:
"चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।"

भावार्थ:
"चित्त से सब कर्मों को मुझमें संन्यास करके मत्परायण हो, बुद्धियोग का आश्रय लेकर मुझमें चित्त वाला सतत हो।"

श्लोक 58:
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।"

भावार्थ:
"मुझमें चित्त वाला होकर मेरे प्रसाद से सब दुर्गों को तर जाएगा। यदि अहंकारवश न सुनोगे तो विनष्ट हो जाओगे।"

श्लोक 62:
"तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।"

भावार्थ:
"हे भारत! सर्वभाव से उसी की शरण में जा, उसके प्रसाद से परा शांति और शाश्वत स्थान को प्राप्त होगा।"

श्लोक 63:
"इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।"

भावार्थ:
"इस प्रकार तुझसे गुह्य से भी गुह्यतर ज्ञान कहा गया है, इसको समग्रता से विमर्श करके जैसा इच्छा करे, वैसा कर।"

श्लोक 64:
"सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।"

भावार्थ:
"फिर मेरा परम वचन सुन, जो सब गुह्यतम है। तू मुझे अत्यंत प्रिय और दृढ़ भक्त है, इसलिए तेरे हित को कहूँगा।"

श्लोक 65:
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।"

भावार्थ:
"मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा पूजक हो, मुझे नमस्कार कर, इस प्रकार मुझमें आत्मा को लगाकर और मुझे परायण होकर तू मुझे ही प्राप्त होगा।"

श्लोक 66:
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।"

भावार्थ:
"सब धर्मों का त्याग करके केवल मेरी शरण में आ जा, मैं तुझे सब पापों से मोक्ष दूँगा, शोक मत कर।"


🔥 श्लोक 67-78: गीता के उपदेश का महत्व

श्लोक 68:
"य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यati।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।"

भावार्थ:
"जो इसे परम गुह्य मेरे भक्तों में कहेगा, मुझमें परा भक्ति करके मुझे ही प्राप्त होगा, इसमें संशय नहीं।"

श्लोक 69:
"न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।"

भावार्थ:
"मनुष्यों में उससे अधिक मेरा प्रियकर्ता कोई न होगा और पृथ्वी पर उससे अधिक प्रियतर मेरा कोई न होगा।"

श्लोक 70:
"अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।"

भावार्थ:
"जो हम दोनों के इस धर्म्य संवाद का अध्ययन करेगा, उसके द्वारा ज्ञानयज्ञ से मैं पूज्य होऊँगा, ऐसी मेरी मति है।"

श्लोक 71:
"श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।"

भावार्थ:
"जो श्रद्धावान और अनसूयक मनुष्य सुन भी लेगा, वह भी मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ लोकों को प्राप्त होगा।"

श्लोक 72:
"कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।"

भावार्थ:
"हे पार्थ! क्या यह एकाग्र चित्त से तुझे सुन लिया गया? हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानसम्मोह नष्ट हो गया?"

श्लोक 73:
"अर्जुन उवाच –
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।"

भावार्थ:
"अर्जुन बोले - हे अच्युत! आपके प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया, स्मृति प्राप्त हो गई, मैं सन्देहरहित स्थित हूँ, आपके वचन के अनुसार करूँगा।"

श्लोक 77:
"सञ्जय उवाच –
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।"

भावार्थ:
"संजय बोले - इस प्रकार वासुदेव और महात्मा पार्थ के इस अद्भुत रोमहर्षण संवाद को मैंने सुना।"

श्लोक 78:
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।"

भावार्थ:
"जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धर पार्थ हैं, वहाँ श्री, विजय, भूति और अचल नीति है, ऐसी मेरी मति है।"


🌍 आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

🧘‍♂️ व्यक्तिगत विकास के लिए:

  • Self-Surrender: आत्मसमर्पण

  • Purposeful Living: सोद्देश्य जीवन

  • Spiritual Liberation: आध्यात्मिक मुक्ति

💼 पेशेवर जीवन के लिए:

  • Ethical Work Culture: नैतिक कार्य संस्कृति

  • Duty with Detachment: अनासक्त कर्तव्य

  • Leadership with Values: मूल्यपूर्ण नेतृत्व

🌱 सामाजिक संदर्भ में:

  • Social Harmony: सामाजिक सद्भाव

  • Cultural Preservation: सांस्कृतिक संरक्षण

  • Moral Governance: नैतिक शासन


🛤️ मोक्ष संन्यास योग से प्राप्त जीवन-मंत्र

  1. "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" – परम समर्पण

  2. "स्वधर्म पालन करो" – कर्तव्य का निर्वहन

  3. "निष्काम कर्म करो" – फलासक्ति का त्याग

  4. "ईश्वर में आस्था रखो" – दिव्य शरणागति


📚 व्यावहारिक अनुशीलन

दैनिक जीवन में अपनाएँ:

  • कर्म को ईश्वरार्पण भाव से करना

  • स्वधर्म का पालन

  • नियमित गीता पाठ और चिंतन

आध्यात्मिक अभ्यास:

  • भक्ति और समर्पण

  • आत्मचिंतन और ध्यान

  • गुरु की शरण


🌈 निष्कर्ष: गीता का परम संदेश

मोक्ष संन्यास योग हमें सिखाता है कि वास्तविक मुक्ति ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण में है। यह अध्याय सम्पूर्ण गीता दर्शन का सार प्रस्तुत करता है।

✨ स्मरण रहे:
"गीता का यह परम संदेश, जीवन का अमर उपदेश।
सब कुछ त्याग ईश्वर को समर्पित कर दो,
सब पापों से मुक्ति पाओ, शाश्वत शांति पाओ।"


🕉️ ॐ तत्सत् | श्री कृष्णार्पणमस्तु 🕉️

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