Friday, November 7, 2025

🌿 अध्याय 16 – दैवासुर संपद विभाग योग: दैवी और आसुरी प्रकृति (The Yoga of the Division between the Divine and the Demoniacal)

 🌿 अध्याय 16 – दैवासुर संपद विभाग योग: दैवी और आसुरी प्रकृति

(The Yoga of the Division between the Divine and the Demoniacal)


📖 अध्याय परिचय

गीता का सोलहवाँ अध्याय, दैवासुर संपद विभाग योग, मनुष्य की दैवी और आसुरी प्रवृत्तियों के विस्तृत लक्षणों को प्रकट करता है। इसमें 24 श्लोक हैं, जो मानव चरित्र के उच्चतम और निम्नतम गुणों का वर्णन करते हैं।


💡 दैवासुर संपद विभाग योग का दार्शनिक आधार

यह अध्याय बताता है कि प्रत्येक मनुष्य में दैवी और आसुरी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह दैवी गुणों को विकसित करे और आसुरी प्रवृत्तियों का त्याग करे।


🌟 प्रमुख श्लोक एवं उनका विस्तृत विवरण

🌺 श्लोक 1-3: दैवी संपदा के लक्षण

श्लोक 1:
"श्री भगवानुवाच –
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।"

भावार्थ:
"श्री भगवान बोले - अभय, सत्त्वशुद्धि, ज्ञानयोग में स्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप और आर्जव।"

श्लोक 2:
"अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।"

भावार्थ:
"अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, अपैशुन, भूतों में दया, अलोलुप्ता, मार्दव, ह्री और अचापल।"

श्लोक 3:
"तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत।।"

भावार्थ:
"तेज, क्षमा, धृति, शौच, अद्रोह, नातिमानिता - हे भारत! ये सब दैवी संपदा वाले के लक्षण हैं।"


🔥 श्लोक 4-6: आसुरी संपदा के लक्षण

श्लोक 4:
"दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम्।।"

भावार्थ:
"हे पार्थ! दंभ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य और अज्ञान - ये आसुरी संपदा वाले के लक्षण हैं।"

श्लोक 5:
"दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।"

भावार्थ:
"हे पाण्डव! दैवी संपदा मोक्ष के लिए और आसुरी बंधन के लिए है। तू दैवी संपदा वाला है, शोक मत कर।"

श्लोक 6:
"द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।।"

भावार्थ:
"हे पार्थ! इस लोक में दो प्रकार के भूतसर्ग हैं - दैव और आसुर। दैव का विस्तार से कह चुका, अब आसुर का मुझसे सुनो।"


🌼 श्लोक 7-18: आसुरी स्वभाव का विस्तृत वर्णन

श्लोक 7:
"प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।"

भावार्थ:
"आसुरी जन प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते, उनमें न शौच है, न आचार है, न सत्य है।"

श्लोक 8:
"असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।।"

भावार्थ:
"वे कहते हैं कि यह जगत असत्य और अप्रतिष्ठ है, ईश्वररहित है, परस्पर संयोग से उत्पन्न हुआ है और काम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।"

श्लोक 9:
"एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।"

भावार्थ:
"इस दृष्टि को अवलंबन करके नष्टआत्मा, अल्पबुद्धि, उग्रकर्मा और जगत के अहितकारी लोग उत्पन्न होते हैं।"

श्लोक 10-11:
"काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः।।"

भावार्थ:
"दुष्पूर काम का आश्रय लेकर दंभ, मान और मद से युक्त, मोह से असद्ग्राह को ग्रहण करके अशुचिव्रत प्रवृत्त होते हैं। प्रलयपर्यंत अपरिमेय चिंता से युक्त और कामोपभोग को ही परम मानकर निश्चय करते हैं।"

श्लोक 12:
"आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्।।"

भावार्थ:
"आशारूपी सैकड़ों पाशों से बँधे, काम और क्रोध में परायण, कामभोग के लिए अन्याय से अर्थसंचय की इच्छा करते हैं।"

श्लोक 13-15:
"इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।।
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।"

भावार्थ:
"'यह आज मैंने पाया, इस मनोरथ को प्राप्त करूँगा, यह है और यह भी मेरा होगा', 'यह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, औरों को भी मारूँगा', 'मैं ईश्वर हूँ, भोगी हूँ, सिद्ध हूँ, बलवान हूँ, सुखी हूँ', 'मैं आढ्य हूँ, उच्चकुलीन हूँ, मेरे समान और कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा, आनंद करूँगा' - इस प्रकार अज्ञान से मोहित होते हैं।"

श्लोक 16:
"अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।"

भावार्थ:
"अनेक चित्तविभ्रान्त, मोहजाल से आवृत, कामभोगों में प्रसक्त, अशुचि नरक में पड़ते हैं।"

श्लोक 17:
"आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।"

भावार्थ:
"आत्मसम्भावित, स्तब्ध, धनमानमद से युक्त, दंभपूर्वक अविधिपूर्वक नाममात्र के यज्ञों से यजन करते हैं।"

श्लोक 18:
"अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।"

भावार्थ:
"अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध को आश्रय करके मुझको अपने और दूसरों के शरीरों में स्थित प्रद्वेष और अभ्यसूया करते हैं।"


💫 श्लोक 19-24: आसुरी जनों का अंत

श्लोक 19:
"तानहं द्विषतः क्रुरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।"

भावार्थ:
"उन द्वेष करने वाले क्रूर नराधमों को मैं निरंतर अशुभ आसुरी योनियों में ही क्षिप्त करता हूँ।"

श्लोक 20:
"आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।"

भावार्थ:
"हे कौन्तेय! आसुरी योनि को प्राप्त मूढ़ जन्म-जन्म में मुझको न पाकर अधम गति को प्राप्त होते हैं।"

श्लोक 21:
"त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।"

भावार्थ:
"काम, क्रोध और लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा के नाश के लिए हैं, इसलिए इन तीनों का त्याग करे।"

श्लोक 22:
"एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।"

भावार्थ:
"हे कौन्तेय! इन तीनों तमोद्वारों से मुक्त मनुष्य आत्मा का श्रेय आचरण करता है, तब परा गति को प्राप्त होता है।"

श्लोक 23:
"यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।"

भावार्थ:
"जो शास्त्रविधि को त्यागकर कामकारत: वर्तता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न सुख को, न परा गति को।"

श्लोक 24:
"तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।"

भावार्थ:
"इसलिए कार्य-अकार्य की व्यवस्था में शास्त्र ही तेरा प्रमाण है, शास्त्रविधानोक्त को जानकर तुझे कर्म करना चाहिए।"


🌍 आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

🧘‍♂️ व्यक्तिगत विकास के लिए:

  • Character Building: चरित्र निर्माण

  • Self-Reflection: आत्म-मंथन

  • Moral Development: नैतिक विकास

💼 पेशेवर जीवन के लिए:

  • Ethical Leadership: नैतिक नेतृत्व

  • Team Management: टीम प्रबंधन

  • Corporate Ethics: कॉर्पोरेट नैतिकता

🌱 सामाजिक संदर्भ में:

  • Social Values: सामाजिक मूल्य

  • Cultural Development: सांस्कृतिक विकास

  • Moral Education: नैतिक शिक्षा


🛤️ दैवासुर संपद विभाग योग से प्राप्त जीवन-मंत्र

  1. "दैवी गुणों को विकसित करो" – उच्च चरित्र

  2. "आसुरी प्रवृत्तियों का त्याग करो" – निम्न भावों से मुक्ति

  3. "शास्त्रों का पालन करो" – मार्गदर्शन के लिए

  4. "काम, क्रोध, लोभ से बचो" – तीन नरक द्वार


📚 व्यावहारिक अनुशीलन

दैनिक जीवन में अपनाएँ:

  • नैतिक मूल्यों का पालन

  • आत्म-विश्लेषण का अभ्यास

  • सकारात्मक गुणों का विकास

आध्यात्मिक अभ्यास:

  • सत्संग और स्वाध्याय

  • मन की शुद्धि

  • नैतिक आचरण


🌈 निष्कर्ष: चरित्र की श्रेष्ठता

दैवासुर संपद विभाग योग हमें सिखाता है कि वास्तविक सफलता दैवी गुणों के विकास में है। यह अध्याय मानव चरित्र के मनोविज्ञान का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

✨ स्मरण रहे:
"दैवी गुण ले उन्नति को, आसुरी ले पतन।
चुन लो अपना मार्ग तुम, बनो महान या क्षुद्र मन।
काम, क्रोध, लोभ त्यागो, पालो सद्गुण सार।
यही है जीवन का मर्म, यही है उद्धार।"


🕉️ श्री कृष्णार्पणमस्तु 🕉️

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