Friday, November 7, 2025

🌿 अध्याय 14 – गुणत्रय विभाग योग: तीन गुणों का विज्ञान (The Yoga of the Division of the Three Gunas)

 🌿 अध्याय 14 – गुणत्रय विभाग योग: तीन गुणों का विज्ञान

(The Yoga of the Division of the Three Gunas)


📖 अध्याय परिचय

गीता का चौदहवाँ अध्याय, गुणत्रय विभाग योग, प्रकृति के तीन गुणों - सत्त्व, रजस और तमस के रहस्य को उजागर करता है। इसमें 27 श्लोक हैं, जो इन गुणों के प्रभाव, लक्षण और इनसे मुक्ति के मार्ग का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करते हैं।


💡 गुणत्रय विभाग योग का दार्शनिक आधार

यह अध्याय बताता है कि सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृति के तीन गुणों के संयोग से चलती है। वास्तविक मुक्ति इन तीनों गुणों से ऊपर उठकर ही संभव है।


🌟 प्रमुख श्लोक एवं उनका विस्तृत विवरण

🌺 श्लोक 1-4: गुणों का उद्गम और प्रभाव

श्लोक 1:
"श्री भगवानुवाच –
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।"

भावार्थ:
"श्री भगवान बोले - फिर परम ज्ञानों में उत्तम ज्ञान को कहता हूँ, जिसे जानकर सब मुनि इस लोक से परा सिद्धि को प्राप्त हो गए।"

श्लोक 2:
"इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।"

भावार्थ:
"इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे साधर्म्य को प्राप्त होकर सृष्टि में उत्पन्न नहीं होते और प्रलय में व्यथित नहीं होते।"

श्लोक 3:
"मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।"

भावार्थ:
"हे भारत! महान ब्रह्म मेरी योनि है, उसमें मैं गर्भ को धारण करता हूँ, उससे सब भूतों की उत्पत्ति होती है।"

श्लोक 4:
"सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।"

भावार्थ:
"हे कौन्तेय! सब योनियों में जो-जो मूर्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन सब की महान ब्रह्म योनि है और मैं बीजप्रदाता पिता हूँ।"


🔥 श्लोक 5-13: तीनों गुणों के लक्षण

श्लोक 5:
"सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।"

भावार्थ:
"हे महाबाहो! सत्त्व, रज और तम - ये प्रकृति से उत्पन्न गुण अव्यय देही को देह में बाँधते हैं।"

श्लोक 6:
"तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।"

भावार्थ:
"हे अनघ! उनमें सत्त्व निर्मल होने से प्रकाशक और निर्विकार है, सुख के संग और ज्ञान के संग से बाँधता है।"

श्लोक 7:
"रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।"

भावार्थ:
"हे कौन्तेय! रज को रागात्मक जान, तृष्णा और संग से उत्पन्न होने वाला, कर्मसंग से देही को बाँधता है।"

श्लोक 8:
"तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।।"

भावार्थ:
"हे भारत! तम को अज्ञानज जान, सब देहियों को मोहन करने वाला, प्रमाद, आलस्य और निद्रा से बाँधता है।"

श्लोक 9:
"सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत।।"

भावार्थ:
"हे भारत! सत्त्व सुख में लगाता है, रज कर्म में लगाता है और तम ज्ञान को आवृत्त करके प्रमाद में लगाता है।"

श्लोक 10:
"रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा।।"

भावार्थ:
"हे भारत! रज और तम को अभिभूत करके सत्त्व होता है, रज सत्त्व और तम को, तम सत्त्व और रज को अभिभूत करता है।"

श्लोक 11:
"सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।।"

भावार्थ:
"जब इस देह के सब द्वारों में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है, तब जानना चाहिए कि सत्त्व की वृद्धि हुई है।"

श्लोक 12:
"लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।"

भावार्थ:
"हे भरतर्षभ! लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, अशम और स्पृहा - ये रज के बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं।"

श्लोक 13:
"अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।।"

भावार्थ:
"हे कुरुनन्दन! अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह - ये तम के बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं।"


🌼 श्लोक 14-18: गुणों के फल और गति

श्लोक 14:
"यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।।"

भावार्थ:
"जब सत्त्व के बढ़ने पर देहधारी प्रलय को प्राप्त होता है, तब उत्तम विद्यावालों के निर्मल लोकों को प्राप्त होता है।"

श्लोक 15:
"रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।।"

भावार्थ:
"रज में प्रलय को प्राप्त होकर कर्मसंगियों में उत्पन्न होता है और इसी प्रकार तम में प्रलय को प्राप्त होकर मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है।"

श्लोक 16:
"कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।।"

भावार्थ:
"पुण्य कर्म का सात्त्विक निर्मल फल कहा गया है, रजस का फल दुःख है और तमस का फल अज्ञान है।"

श्लोक 17:
"सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च।।"

भावार्थ:
"सत्त्व से ज्ञान उत्पन्न होता है, रज से लोभ और तम से प्रमाद, मोह तथा अज्ञान उत्पन्न होता है।"

श्लोक 18:
"ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।"

भावार्थ:
"सत्त्वस्थ लोग ऊपर को जाते हैं, राजस लोग मध्य में रहते हैं और जघन्य गुणवृत्ति वाले तामस लोग नीचे को जाते हैं।"


💫 श्लोक 19-27: गुणातीत की महिमा

श्लोक 19:
"नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।"

भावार्थ:
"जब द्रष्टा गुणों से भिन्न कर्ता को नहीं देखता और गुणों से परे को जानता है, तो वह मेरे भाव को प्राप्त होता है।"

श्लोक 20:
"गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।"

भावार्थ:
"इन देह से उत्पन्न तीनों गुणों को अतीत होकर देही जन्म-मृत्यु-जरा-दुःखों से मुक्त होकर अमृत का भोग करता है।"

श्लोक 21:
"अर्जुन उवाच –
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते।।"

भावार्थ:
"अर्जुन बोले - हे प्रभो! किन लक्षणों वाला पुरुष इन तीनों गुणों को अतीत हो जाता है? उसका आचार क्या है और वह इन तीनों गुणों को कैसे अतिक्रमण करता है?"

श्लोक 22-25: गुणातीत के लक्षण
"प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते।।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।"

भावार्थ:
"हे पाण्डव! प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह को प्रवृत्त हुए न द्वेष करता है और निवृत्त हुए कामना नहीं करता। गुणों से न विचलित होने वाला उदासीनवत बैठा रहता है, 'गुण ही वर्तते हैं' ऐसा कहकर स्थित रहता है और इधर-उधर नहीं डगमगाता। समदुःखसुख, स्वस्थ, लोष्ट, अश्म और काञ्चन में सम, तुल्यप्रियाप्रिय, धीर, तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति, मान-अपमान में सम, मित्र और शत्रु में सम और सब आरम्भों का त्यागी - वह गुणातीत कहा जाता है।"

श्लोक 26:
"मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।"

भावार्थ:
"जो अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरी सेवा करता है, वह इन गुणों को अतीत होकर ब्रह्मभूय के योग्य हो जाता है।"

श्लोक 27:
"ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।"

भावार्थ:
"क्योंकि मैं ब्रह्म की, अमृत की, अव्यय की, शाश्वत धर्म की और एकान्तिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ।"


🌍 आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

🧘‍♂️ व्यक्तिगत विकास के लिए:

  • Self-Awareness: आत्म-जागरूकता

  • Emotional Intelligence: भावनात्मक बुद्धिमत्ता

  • Mind Management: मन का प्रबंधन

💼 पेशेवर जीवन के लिए:

  • Quality Work: गुणवत्तापूर्ण कार्य

  • Decision Making: निर्णय क्षमता

  • Leadership Development: नेतृत्व विकास

🌱 सामाजिक संदर्भ में:

  • Harmonious Living: सामंजस्यपूर्ण जीवन

  • Value Education: मूल्य आधारित शिक्षा

  • Social Balance: सामाजिक संतुलन


🛤️ गुणत्रय विभाग योग से प्राप्त जीवन-मंत्र

  1. "सत्त्वगुण को बढ़ाओ" – शुद्धता और ज्ञान

  2. "रजोगुण को संयमित करो" – कर्म में संतुलन

  3. "तमोगुण को कम करो" – अज्ञान और आलस्य का त्याग

  4. "गुणातीत बनो" – तीनों गुणों से मुक्ति


📚 व्यावहारिक अनुशीलन

दैनिक जीवन में अपनाएँ:

  • सात्त्विक आहार और विचार

  • नियमित साधना और स्वाध्याय

  • संतुलित कर्म और विश्राम

आध्यात्मिक अभ्यास:

  • ध्यान और आत्मचिंतन

  • गुणों के प्रभाव का अवलोकन

  • भक्ति और ज्ञान का समन्वय


🌈 निष्कर्ष: गुणों के बंधन से मुक्ति

गुणत्रय विभाग योग हमें सिखाता है कि वास्तविक मुक्ति तीनों गुणों के बंधन से मुक्त होकर ही संभव है। यह अध्याय मानव जीवन के मनोविज्ञान का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

✨ स्मरण रहे:
"सत्त्व, रज, तम - ये तीनों गुण,
बाँधते हैं जीव को अज्ञान।
जो इनसे ऊपर उठ जाए,
वही पाता है परम ज्ञान।"


🕉️ श्री कृष्णार्पणमस्तु 🕉️

No comments:

Post a Comment

🌿 अर्जुन विषाद योग: अध्याय 1, श्लोक 16 📖

  🌿   अर्जुन विषाद योग: अध्याय 1, श्लोक 16   📖 🎯 मूल श्लोक: "अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ...