🌿 अध्याय 13 – क्षेत्र क्षेत्रज्ञ योग: शरीर और आत्मा का विज्ञान
(The Yoga of the Field and the Knower of the Field)
📖 अध्याय परिचय
गीता का तेरहवाँ अध्याय, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ योग, शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (क्षेत्रज्ञ) के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है। इसमें 34 श्लोक हैं, जो सृष्टि के मूल तत्त्वों, ज्ञान के स्वरूप और परमात्मा की सर्वव्यापकता का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करते हैं।
💡 क्षेत्र क्षेत्रज्ञ योग का दार्शनिक आधार
यह अध्याय बताता है कि सम्पूर्ण सृष्टि क्षेत्र (भौतिक प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (चेतना) के संयोग से उत्पन्न हुई है। वास्तविक ज्ञान इन दोनों के अंतर को समझना है।
🌟 प्रमुख श्लोक एवं उनका विस्तृत विवरण
🌺 श्लोक 1-2: क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की परिभाषा
श्लोक 1:
"अर्जुन उवाच –
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।"
भावार्थ:
"अर्जुन बोले - हे केशव! प्रकृति, पुरुष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय को जानने की इच्छा करता हूँ।"
श्लोक 2:
"श्री भगवानुवाच –
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।"
भावार्थ:
"श्री भगवान बोले - हे कौन्तेय! इस शरीर को क्षेत्र कहते हैं और जो इसे जानता है, उसे ज्ञानी लोग क्षेत्रज्ञ कहते हैं।"
🔥 श्लोक 3-11: क्षेत्र के तत्त्व और ज्ञान का स्वरूप
श्लोक 4:
"तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु।।"
भावार्थ:
"वह क्षेत्र क्या है, कैसा है, क्या-क्या विकार वाला है, कहाँ से उत्पन्न हुआ है, वह क्षेत्रज्ञ कौन है और उसकी शक्ति क्या है, यह सब संक्षेप में मुझसे सुनो।"
श्लोक 5:
"ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः।।"
भावार्थ:
"ऋषियों ने अनेक प्रकार से, विविध छंदों से पृथक्-पृथक् और ब्रह्मसूत्रपदों से हेतुयुक्त निश्चय किए हुए गीत किया है।"
श्लोक 6-7: ज्ञान के 20 तत्त्व
"महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचराः।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।"
भावार्थ:
"पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त, दस इंद्रियाँ और एक मन, पाँच इंद्रिय-विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात (शरीर), चेतना और धृति - यह सविकार क्षेत्र संक्षेप में कहा गया है।"
🌼 श्लोक 12-18: ज्ञेय (परमात्मा) का स्वरूप
श्लोक 13:
"ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।"
भावार्थ:
"अब मैं ज्ञेय को कहता हूँ, जिसे जानकर अमृत का भोग करते हैं, जो अनादि, मत्पर ब्रह्म है, न सत् कहा जाता है न असत्।"
श्लोक 14:
"सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।"
भावार्थ:
"उसके सब ओर हाथ-पैर हैं, सब ओर आँखें-सिर-मुख हैं, सब ओर कान हैं, वह संसार में सबको आवृत्त करके स्थित है।"
श्लोक 15:
"सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।"
भावार्थ:
"सब इंद्रियों के गुणों का आभासमान, सब इंद्रियों से रहित, सबका धारण-पोषण करने वाला, गुणों से रहित और गुणों का भोक्ता है।"
श्लोक 16:
"बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।"
भावार्थ:
"प्राणियों के बाहर और भीतर, अचर और चर के समीप, सूक्ष्म होने से अविज्ञेय, दूर और निकट स्थित है।"
श्लोक 17:
"अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।"
भावार्थ:
"प्राणियों में अविभक्त होकर विभक्त-सा स्थित, भूतों का भर्ता, ग्रसिष्णु और प्रभविष्णु जानना चाहिए।"
💫 श्लोक 19-34: ज्ञान और मोक्ष का मार्ग
श्लोक 19:
"प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।"
भावार्थ:
"प्रकृति और पुरुष दोनों को अनादि जानो, विकारों और गुणों को प्रकृति से उत्पन्न जानो।"
श्लोक 20:
"कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।"
भावार्थ:
"कार्य-करण-कर्तृत्व का हेतु प्रकृति कही जाती है और सुख-दुःख के भोक्तृत्व का हेतु पुरुष कहा जाता है।"
श्लोक 21:
*"पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।"
भावार्थ:
"प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृतिजनित गुणों का भोग करता है, गुणों का संग ही उसके सदसद्योनियों में जन्म का कारण है।"
श्लोक 22:
"उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।"
भावार्थ:
"इस देह में स्थित पर पुरुष उपद्रष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा कहा जाता है।"
श्लोक 27:
"समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।"
भावार्थ:
"जो नाशवानों में अविनाशी और सब प्राणियों में समरूप से स्थित परमेश्वर को देखता है, वही यथार्थ देखता है।"
श्लोक 28:
"समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।"
भावारथ:
"सर्वत्र समरूप से स्थित ईश्वर को समदृष्टि से देखता हुआ मनुष्य आत्मा द्वारा आत्मा की हिंसा नहीं करता, इसलिए परा गति को प्राप्त होता है।"
श्लोक 29:
"प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।।"
भावार्थ:
"जो प्रकृति द्वारा ही सब प्रकार के कर्म किए जाते देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है।"
श्लोक 31:
"यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।"
भावार्थ:
"जब मनुष्य भूतों के पृथक्-पृथक् भाव को एक स्थान में और उसी से विस्तार को देखता है, तब ब्रह्म को प्राप्त होता है।"
श्लोक 32:
"अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।"
भावार्थ:
"हे कौन्तेय! अनादित्व और निर्गुणत्व के कारण यह परमात्मा अव्यय है, शरीर में स्थित होकर भी न कर्म करता है, न लिप्त होता है।"
श्लोक 34:
"यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।"
भावार्थ:
"हे भारत! जैसे एक सूर्य सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, वैसे ही क्षेत्री (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्र (शरीर) को प्रकाशित करता है।"
🌍 आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता
🧘♂️ व्यक्तिगत विकास के लिए:
Self-Realization: आत्म-साक्षात्कार
Mind-Body Connection: मन-शरीर संबंध
Spiritual Awareness: आध्यात्मिक जागरूकता
💼 पेशेवर जीवन के लिए:
Detached Involvement: अनासक्त कर्म
Ethical Decision Making: नैतिक निर्णय
Leadership with Wisdom: ज्ञानपूर्ण नेतृत्व
🌱 सामाजिक संदर्भ में:
Holistic Education: समग्र शिक्षा
Environmental Consciousness: पर्यावरण चेतना
Universal Brotherhood: सार्वभौमिक बंधुत्व
🛤️ क्षेत्र क्षेत्रज्ञ योग से प्राप्त जीवन-मंत्र
"शरीर नश्वर, आत्मा शाश्वत" – वास्तविक पहचान
"साक्षी भाव अपनाओ" – कर्तापन का त्याग
"समदर्शी बनो" – एकत्व का दर्शन
"ज्ञान ही मुक्ति" – अज्ञान के अंधकार को दूर करो
📚 व्यावहारिक अनुशीलन
दैनिक जीवन में अपनाएँ:
आत्म-अवलोकन का अभ्यास
शरीर और आत्मा के अंतर का चिंतन
समदृष्टि का विकास
आध्यात्मिक अभ्यास:
ध्यान और आत्मचिंतन
ज्ञान की साधना
निष्काम कर्म का अभ्यास
🌈 निष्कर्ष: वास्तविक पहचान का ज्ञान
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ योग हमें सिखाता है कि वास्तविक मुक्ति शरीर और आत्मा के अंतर को जानने में है। यह अध्याय सम्पूर्ण सृष्टि के मूल तत्त्वों का विज्ञान प्रस्तुत करता है।
✨ स्मरण रहे:
"शरीर है क्षेत्र, आत्मा है क्षेत्रज्ञ,
यही जाने वही है ज्ञानी।
साक्षी भाव से देखो संसार,
पाओ परमात्मा का दर्शन भारी।"
🕉️ श्री कृष्णार्पणमस्तु 🕉️
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