🌿 अध्याय 10 – विभूति योग: भगवान की दिव्य विभूतियाँ
(The Yoga of Divine Glories)
📖 अध्याय परिचय
गीता का दसवाँ अध्याय, विभूति योग, भगवान श्रीकृष्ण की अनंत दिव्य विभूतियों और शक्तियों का वर्णन करता है। इसमें 42 श्लोक हैं, जो समस्त ब्रह्मांड में ईश्वर की उपस्थिति और महिमा को प्रकट करते हैं।
💡 विभूति योग का दार्शनिक आधार
यह अध्याय बताता है कि सम्पूर्ण सृष्टि में जो कुछ भी श्रेष्ठ, ऐश्वर्यपूर्ण और तेजस्वी है, वह सब परमात्मा की ही विभूतियाँ हैं। भगवान सबमें व्याप्त होकर भी सबसे परे हैं।
🌟 प्रमुख श्लोक एवं उनका विस्तृत विवरण
🌺 श्लोक 1-7: विभूतियों का महत्व
श्लोक 1:
"श्री भगवानुवाच –
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।"
भावार्थ:
"श्री भगवान बोले - हे महाबाहो! फिर से मेरा परम वचन सुन, जो मैं तेरे हित की कामना से तुझसे कहता हूँ।"
श्लोक 2:
"न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।"
भावार्थ:
"न देवगण और न महर्षिगण ही मेरे प्रभाव को जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का आदि कारण हूँ।"
श्लोक 3:
"यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।"
भावार्थ:
"जो मुझ अजन्मा और अनादि को लोकमहेश्वर जानता है, वह मनुष्यों में असम्मूढ़ है और सब पापों से मुक्त हो जाता है।"
श्लोक 4-5:
"बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।"
भावार्थ:
"बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख-दुःख, भव-अभव, भय-अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश-अपयश - ये सब भाव प्राणियों में मुझसे ही अलग-अलग प्रकार से होते हैं।"
🔥 श्लोक 8-11: भक्ति का महत्व
श्लोक 8:
"अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।"
भावार्थ:
"मैं सबका उद्गम हूँ, मुझसे सब कुछ प्रवर्तित होता है - ऐसा मानकर भावसमन्वित बुद्धिमान लोग मेरा भजन करते हैं।"
श्लोक 9:
"मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।"
भावार्थ:
"मुझमें चित्त वाले, मुझमें प्राणों को लगाने वाले, परस्पर बोध कराते और मेरी कथा कहते हुए वे नित्य तुष्ट और आनंदित रहते हैं।"
श्लोक 10:
"तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।"
भावार्थ:
"उन सतत युक्त और प्रीतिपूर्वक भजन करने वालों को मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं।"
श्लोक 11:
"तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।"
भावार्थ:
"उन पर अनुकंपा करने के लिए मैं आत्मभाव में स्थित होकर उज्ज्वल ज्ञानदीप से उनके अज्ञानजन्य तम को नष्ट कर देता हूँ।"
🌼 श्लोक 12-18: अर्जुन की प्रार्थना
श्लोक 12-13:
"अर्जुन उवाच –
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।"
भावार्थ:
"अर्जुन बोले - आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र, शाश्वत दिव्य पुरुष, आदिदेव, अज और विभु हैं। सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल, व्यास और स्वयं आप ही मुझसे कहते हैं।"
श्लोक 14:
"सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।"
भावार्थ:
"हे केशव! जो कुछ आप मुझसे कहते हैं, मैं उसे सत्य मानता हूँ, क्योंकि हे भगवन! न देवता और न दानव ही आपके व्यक्त स्वरूप को जानते हैं।"
श्लोक 15:
"स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।"
भावार्थ:
"हे पुरुषोत्तम! भूतभावन! भूतेश! देवदेव! जगत्पते! आप स्वयं ही अपने-आपको जानते हैं।"
श्लोक 16:
"वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।"
भावार्थ:
"आप अपनी दिव्य आत्मविभूतियों को अशेष रूप से कहने के योग्य हैं, जिन विभूतियों से आप इन लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं।"
श्लोक 18:
"विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।"
भावार्थ:
"हे जनार्दन! अपने योग और विभूति को विस्तार से फिर कहिए, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनने से मेरी तृप्ति नहीं होती।"
💫 श्लोक 19-42: विभूतियों का विस्तृत वर्णन
श्लोक 20:
"अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।"
भावार्थ:
"हे गुडाकेश! मैं सब प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ और मैं ही प्राणियों का आदि, मध्य और अंत हूँ।"
श्लोक 21:
"आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।"
भावार्थ:
"आदित्यों में मैं विष्णु हूँ, ज्योतियों में तेजस्वी सूर्य हूँ, मरुतों में मैं मरीचि हूँ, नक्षत्रों में चंद्रमा हूँ।"
श्लोक 22:
"वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।"
भावार्थ:
"वेदों में मैं सामवेद हूँ, देवताओं में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ, प्राणियों में चेतना हूँ।"
श्लोक 23:
"रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।"
भावार्थ:
"रुद्रों में शंकर हूँ, यक्ष-राक्षसों में कुबेर हूँ, वसुओं में अग्नि हूँ, पर्वतों में मेरु हूँ।"
श्लोक 24:
"पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।"
भावार्थ:
"हे पार्थ! पुरोहितों में बृहस्पति को मेरा मुख्य स्वरूप जान, सेनानियों में स्कन्द हूँ, सरोवरों में सागर हूँ।"
श्लोक 25:
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।"
भावार्थ:
"महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में एक अक्षर ॐ हूँ, यज्ञों में जपयज्ञ हूँ, स्थावरों में हिमालय हूँ।"
श्लोक 26:
"अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।"
भावार्थ:
"वृक्षों में अश्वत्थ हूँ, देवर्षियों में नारद हूँ, गंधर्वों में चित्ररथ हूँ, सिद्धों में कपिल मुनि हूँ।"
श्लोक 27:
"उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।"
भावार्थ:
"अश्वों में अमृत से उत्पन्न उच्चैःश्रवा को मेरा स्वरूप जान, हाथियों में ऐरावत हूँ, मनुष्यों में राजा हूँ।"
श्लोक 28:
"आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।"
भावार्थ:
"अस्त्रों में वज्र हूँ, गायों में कामधेनु हूँ, प्रजनन में कामदेव हूँ, सर्पों में वासुकि हूँ।"
श्लोक 29:
"अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्।।"
भावार्थ:
"नागों में अनंत हूँ, जलचरों में वरुण हूँ, पितरों में अर्यमा हूँ, संयम करने वालों में यम हूँ।"
श्लोक 33:
"अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः।।"
भावार्थ:
"अक्षरों में 'अ' हूँ, समासों में द्वंद्व समास हूँ, मैं ही अक्षय काल हूँ, मैं ही सब ओर मुख वाला धाता हूँ।"
श्लोक 34:
"मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।"
भावार्थ:
"मैं सबको हरने वाला मृत्यु हूँ और भविष्य में होने वालों का उद्भव हूँ। नारियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ।"
श्लोक 38:
"दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।"
भावार्थ:
"दमन करने वालों में दंड हूँ, जीतने की इच्छा वालों में नीति हूँ, गुप्त बातों में मौन हूँ, ज्ञानवानों में ज्ञान हूँ।"
श्लोक 40:
"नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।"
भावार्थ:
"हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। यह तो मैंने संक्षेप से ही मेरी विभूतियों का विस्तार कहा है।"
श्लोक 41:
"यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।"
भावार्थ:
"जो-जो विभूतिमान, श्रीमान और ओजस्वी पदार्थ है, उस-उसको तू मेरे तेज के अंश से उत्पन्न हुआ जान।"
श्लोक 42:
"अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।"
भावारथ:
"हे अर्जुन! इस प्रकार बहुत कहने से क्या जानना है? मैं इस समस्त जगत को एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।"
🌍 आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता
🧘♂️ व्यक्तिगत विकास के लिए:
Divine Vision: सबमें ईश्वर के दर्शन
Gratitude: कृतज्ञता की भावना
Humility: विनम्रता का विकास
💼 पेशेवर जीवन के लिए:
Excellence: उत्कृष्टता की खोज
Leadership: दिव्य गुणों का विकास
Innovation: सृजनात्मकता
🌱 सामाजिक संदर्भ में:
Unity in Diversity: विविधता में एकता
Respect for All: सभी के प्रति सम्मान
Environmental Consciousness: पर्यावरण संरक्षण
🛤️ विभूति योग से प्राप्त जीवन-मंत्र
"सबमें ईश्वर देखो" – दिव्य दृष्टि
"श्रेष्ठता ईश्वर से है" – विनम्र भाव
"विविधता में एकता" – समन्वय दृष्टिकोण
"अनंत विभूतियाँ" – असीम महिमा
📚 व्यावहारिक अनुशीलन
दैनिक जीवन में अपनाएँ:
प्रकृति में ईश्वर के दर्शन
सभी उत्कृष्ट वस्तुओं में दिव्यता का अनुभव
कृतज्ञता पूर्वक जीवन जीना
आध्यात्मिक अभ्यास:
ईश्वर की विभूतियों का चिंतन
सर्वव्यापी भाव का विकास
भक्ति और ज्ञान का समन्वय
🌈 निष्कर्ष: सर्वव्यापी ईश्वर का दर्शन
विभूति योग हमें सिखाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर की विभूतियों से परिपूर्ण है। यह अध्याय हमें सबमें ईश्वर के दर्शन करने की दिव्य दृष्टि प्रदान करता है।
✨ स्मरण रहे:
"जहाँ कहीं देखो शोभा, जहाँ कहीं देखो तेज।
सबमें है ईश्वर विराजते, यही है विभूति का विवेज।
सूर्य, चंद्र, वन, पर्वत, नदी, सागर अपार।
सबमें देखो प्रभु की महिमा, यही है ज्ञान सार।"
🕉️ श्री कृष्णार्पणमस्तु 🕉️
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