Friday, November 7, 2025

🌿 अध्याय 11 – विश्वरूप दर्शन योग: दिव्य साक्षात्कार (The Yoga of the Vision of the Cosmic Form)

 🌿 अध्याय 11 – विश्वरूप दर्शन योग: दिव्य साक्षात्कार

(The Yoga of the Vision of the Cosmic Form)


📖 अध्याय परिचय

गीता का ग्यारहवाँ अध्याय, विश्वरूप दर्शन योग, अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण के विश्वरूप के दर्शन का अद्भुत प्रसंग प्रस्तुत करता है। इसमें 55 श्लोक हैं, जो भगवान के साकार और निराकार दोनों स्वरूपों के दर्शन कराते हैं।


💡 विश्वरूप दर्शन योग का दार्शनिक आधार

यह अध्याय बताता है कि परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण, साकार और निराकार है। विश्वरूप का दर्शन आत्मसाक्षात्कार की पराकाष्ठा है।


🌟 प्रमुख श्लोक एवं उनका विस्तृत विवरण

🌺 श्लोक 1-4: अर्जुन की प्रार्थना

श्लोक 3:
"एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।"

भावार्थ:
"हे परमेश्वर! जैसे आप अपने-आपको कहते हैं, वैसे ही हे पुरुषोत्तम! मैं आपके उस ऐश्वर्यपूर्ण रूप को देखना चाहता हूँ।"

श्लोक 4:
"मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्।।"

भावार्थ:
"हे प्रभो! हे योगेश्वर! यदि आप समझते हैं कि मेरे द्वारा देखा जा सकता है, तो आप मुझे अपने अव्यय आत्मा का दर्शन कराइए।"


🔥 श्लोक 5-8: विश्वरूप प्रदर्शन

श्लोक 5:
"श्री भगवानुवाच –
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।"

भावार्थ:
"श्री भगवान बोले - हे पार्थ! मेरे सैकड़ों-हज़ारों नाना प्रकार के दिव्य, नाना वर्ण और आकृति वाले रूपों को देख।"

श्लोक 7:
"इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि।।"

भावार्थ:
"हे गुडाकेश! आज इस एक स्थान में सम्पूर्ण चराचर जगत को और तू जो कुछ और देखना चाहता है, उसे मेरे शरीर में देख।"

श्लोक 8:
"न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।"

भावार्थ:
"परन्तु तू मुझे इस अपने नेत्र से देखने में समर्थ नहीं है, इसलिए मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, तू मेरे ऐश्वर्ययोग को देख।"


🌼 श्लोक 9-14: विश्वरूप का वर्णन

श्लोक 9:
"एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।"

भावार्थ:
"हे राजन! इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर श्री हरि ने अर्जुन को परम ऐश्वर्यपूर्ण रूप का दर्शन कराया।"

श्लोक 10-11:
"अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।।"

भावार्थ:
"अनेक मुख-नेत्रों वाला, अनेक अद्भुत दर्शन वाला, अनेक दिव्य आभरणों से युक्त, अनेक दिव्य उठाए हुए अस्त्र-शस्त्रों वाला, दिव्य माल्य और वस्त्र धारण किए, दिव्य गंध और अनुलेपन लगाए, सब आश्चर्यों से युक्त, अनंत और सब ओर मुख वाले देव को देखा।"

श्लोक 12:
"दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।"

भावार्थ:
"यदि आकाश में सहस्रों सूर्य एक साथ उदित हों, तो उनका प्रकाश उस महात्मा के तेज की समानता कर सकता है।"


💫 श्लोक 15-31: अर्जुन का विस्मय और भय

श्लोक 15:
"तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।"

भावार्थ:
"उस समय पाण्डव ने देवदेव के शरीर में एक स्थान में स्थित सम्पूर्ण जगत को अनेक प्रकार से विभक्त देखा।"

श्लोक 16:
"स विस्मयो महेष्वासो हृष्टरोमा धनञ्जय।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।"

भावार्थ:
"हे महाधनुर्धर! वह धनंजय हृष्टरोमा होकर विस्मय को प्राप्त हुआ और देवता को सिर झुकाकर, कृतांजलि होकर बोला।"

श्लोक 20:
"द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।।"

भावार्थ:
"हे महात्मन! आकाश और पृथ्वी के बीच का यह स्थान और सब दिशाएँ आपसे ही व्याप्त हैं। आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक व्यथित हो रहे हैं।"

श्लोक 24:
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-
स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।।"

भावार्थ:
"हे अनंतरूप! आप आदिदेव, पुराण पुरुष हैं, आप इस विश्व के परम निधान हैं, आप जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं, आपसे यह विश्व व्याप्त है।"

श्लोक 25:
"दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास।।"

भावार्थ:
"हे देवेश! हे जगन्निवास! कालाग्नि के समान प्रतीत होने वाले और दंष्ट्राओं से भयानक आपके मुखों को देखकर मैं दिशाएँ नहीं जानता और न शांति ही प्राप्त करता हूँ, आप प्रसन्न हों।"


🌺 श्लोक 32-34: कालरूप का प्रकटीकरण

श्लोक 32:
"कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।"

भावार्थ:
"मैं बढ़ा हुआ काल हूँ, लोकों का संहार करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। तेरे बिना भी ये समस्त शत्रु सेनाओं में स्थित योद्धा नहीं रहेंगे।"

श्लोक 33:
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।"

भावार्थ:
"इसलिए तू उठ, यश को प्राप्त हो, शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य भोग। हे सव्यसाची! ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं, तू निमित्तमात्र हो।"


🔥 श्लोक 35-46: अर्जुन का भय और प्रार्थना

श्लोक 36:
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।।"

भावार्थ:
"आपको आगे, पीछे और सब ओर से नमस्कार है। हे सर्व! आप अनंतवीर्य और अमितविक्रम हैं, आप सबको व्याप्त करते हैं, इसलिए आप सर्व हैं।"

श्लोक 40:
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।।"

भावार्थ:
"आपको आगे, पीछे और सब ओर से नमस्कार है। हे सर्व! आप अनंतवीर्य और अमितविक्रम हैं, आप सबको व्याप्त करते हैं, इसलिए आप सर्व हैं।"

श्लोक 41-42:
"सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं
मया प्रमादात्प्रणयेन वाऽपि।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि
विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।।"

भावार्थ:
"हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे! इस प्रकार सखा भाव समझकर जो कुछ प्रमादवश या प्रेमवश अज्ञान से कहा गया है और हँसी के लिए अकेले या दूसरों के सामने विहार, शय्या, आसन और भोजन में जो अपमान किया है, हे अच्युत! हे अप्रमेय! मैं उसके लिए आपसे क्षमा माँगता हूँ।"

श्लोक 45:
"अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास।।"

भावार्थ:
"अदृष्टपूर्व रूप को देखकर मैं हर्षित हुआ हूँ और भय से मेरा मन व्यथित हो रहा है। हे देव! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझे वही (पहले वाला) रूप दिखाइए, आप प्रसन्न हों।"


🌼 श्लोक 47-55: चतुर्भुज रूप दर्शन

श्लोक 46:
"किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त-
मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।"

भावार्थ:
"हे सहस्रबाहो! हे विश्वमूर्ते! मैं आपको किरीटधारी, गदाधारी और चक्रहस्त वाले उसी रूप में देखना चाहता हूँ, आप उसी चतुर्भुज रूप में हो जाइए।"

श्लोक 47:
"मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।"

भावार्थ:
"श्री भगवान बोले - हे अर्जुन! मेरे प्रसन्न होने पर आत्मयोग से यह परम, तेजोमय, अनंत और आदि विश्वरूप तुझे दिखाया गया है, जो तुझसे पहले किसी ने नहीं देखा।"

श्लोक 48:
"न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै-
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।"

भावार्थ:
"हे कुरुप्रवीर! वेद, यज्ञ, अध्ययन, दान, क्रियाएँ और उग्र तपस्या से इस प्रकार के रूप वाला मैं तेरे अतिरिक्त किसी अन्य के द्वारा इस मनुष्य लोक में देखा जाने योग्य नहीं हूँ।"

श्लोक 50:
"सञ्जय उवाच –
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।
आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।।"

भावार्थ:
"संजय बोले - इस प्रकार अर्जुन से कहकर वासुदेव ने फिर अपना रूप दिखाया और महात्मा होकर पुनः सौम्य रूप धारण करके इस भयभीत अर्जुन को आश्वासन दिया।"

श्लोक 51:
"अर्जुन उवाच –
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः।।"

भावार्थ:
"अर्जुन बोले - हे जनार्दन! आपके इस मनुष्यरूपी सौम्य रूप को देखकर अब मैं संवृत्त (सामान्य अवस्था को प्राप्त) और सचेत होकर अपनी प्रकृति को प्राप्त हुआ हूँ।"

श्लोक 55:
"मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः
सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।"

भावार्थ:
"हे पाण्डव! जो मेरे लिए कर्म करता है, मुझे परम मानता है, मेरा भक्त है, संग से रहित है, सब प्राणियों से निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है।"


🌍 आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

🧘‍♂️ व्यक्तिगत विकास के लिए:

  • Cosmic Vision: ब्रह्मांडीय दृष्टिकोण

  • Humility: विनम्रता का विकास

  • Surrender: समर्पण की भावना

💼 पेशेवर जीवन के लिए:

  • Holistic Perspective: समग्र दृष्टिकोण

  • Leadership Vision: नेतृत्व की विस्तृत दृष्टि

  • Team Spirit: सामूहिक भावना

🌱 सामाजिक संदर्भ में:

  • Universal Brotherhood: सार्वभौमिक बंधुत्व

  • Environmental Awareness: पर्यावरणीय जागरूकता

  • Global Perspective: वैश्विक दृष्टिकोण


🛤️ विश्वरूप दर्शन योग से प्राप्त जीवन-मंत्र

  1. "सबमें ईश्वर देखो" – दिव्य दृष्टि

  2. "विनम्र बनो" – अहंकार का त्याग

  3. "समर्पण करो" – ईश्वर में आस्था

  4. "ब्रह्मांडीय चेतना" – विशाल दृष्टिकोण


📚 व्यावहारिक अनुशीलन

दैनिक जीवन में अपनाएँ:

  • प्रकृति में ईश्वर के विराट रूप के दर्शन

  • विनम्रता और समर्पण का अभ्यास

  • सभी प्राणियों में एक ही आत्मा का दर्शन

आध्यात्मिक अभ्यास:

  • ध्यान द्वारा विश्वरूप का चिंतन

  • ईश्वर की महिमा का गुणगान

  • भक्ति और समर्पण का विकास


🌈 निष्कर्ष: दिव्य दर्शन की पराकाष्ठा

विश्वरूप दर्शन योग हमें सिखाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर का ही विस्तार है। यह अध्याय आत्मसाक्षात्कार की चरम सीमा का दर्शन कराता है।

✨ स्मरण रहे:
"विश्वरूप यह अद्भुत, देखा जिसने एक बार।
बदल गई उसकी दृष्टि, हो गया संसार पार।
सबमें एक ही आत्मा, सबमें एक ही प्रभु।
यही जाने वह ज्ञानी, यही सच्चा योगबल।"


🕉️ श्री कृष्णार्पणमस्तु 🕉️

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